पतिव्रता गुलाम महिलाओं का वोट
बिहार में अखबार के समाचार संकलन के दौरान यह जानने का प्रयास किया कि क्या निष्पक्ष चुनाव संभव है। वैसे तो ढेर सारी बातें उभर कर सामने आई जिसका जिक्र बाद में करुंगा । लेकिन सबसे ज्यादा उस बात ने मेरा ध्यान आकर्षित किया जिससे परिचित तो सभी हैं लेकिन कभी गंभीरता से उस पर विचार नही किया गया । शिक्षा के विकास के साथ-साथ आज गांवों में भी महिलाओं को मेले मे जाने , सर्कस देखने , पसंद के कपडे खरीदने की आजादी हासिल हो चुकी है लेकिन अपने मन से चुनाव में खडे उम्मीदवार को चुनने की आजादी नही है । एसा नही है कि किसी ने उनको रोका है , वे खुद नही चाहतीं, कही न कही उनके मन के अंदर तक बैठे पतिव्रता नाम का जीव इसकी इजाजत नही देता और वैसी स्थिति में प्रशासन या चुनाव आयोग भी क्या कर सकता है। पति की ईच्छा के विरुद्ध जाकर मत डालना उन्हें अपने कर्म से विमुख होना लगता है। एक ग्रामीण महिला से पुछा " केकरा कहे पर डाल रहलु हे वोट , उसने पल्लु से मुह ढकते हुये , शर्मीली मुस्कान के साथ कहा जेकरा मलिकवा कहलथुन हे ओकरे न देबे बाबु " मैने कुछ नही कहा लेकिन उसकी बात ने दो चीजें साफ़ कर दी, एक तो महिलाओं की रुची राजनिति में करीब - करीब न के समान है और दुसरा कि वोट देने के मामले में आज भी पतिव्रत ही ज्यादा अहमियत रखता है ।
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